रविवार, 11 सितंबर 2011

जीवन की क्षणभंगुरता


में
तन्हा खामोश बैठी
एक दिन
निहार रही थी
अपना ही प्रतिबिम्ब
खूबसूरत झील में
कई पक्षी
क्रीडा कर रहे थे ,
नावों में बैठे
कई जोड़े
अठखेलियाँ करती
सर्द हवा को
गर्मी दे रहे थे |
झील के किनारे खड़े
ऊँचे - ऊँचे दरख्त भी
हिल रहे थे
गले मिल रहे थे ,
तभी एक चील ने
अचानक तेजी से
गोता लगाया
किनारे आई मछली को
मुँह में दबा
जीवन क्षण- भंगुर है
यह एहसास कराया |
आज जो प्रतिबिम्ब
दिखे थे पानी में
कल वो रहेंगे या नहीं
यह समझाया |
अगले दिन झील पर
अलग ही समां था
न सर्द हवा
न दरख्तों का हिलना
झील के ठहरे से
पानी में कश्तियों का बहना ,
थोड़ा कोलाहल
ठहरी कश्ती में बैठी में
निहार रही थी
झील के पानी में
गोता लगाते
सूरज के प्रतिबिम्ब को ,
शान्त नीरव सांझ की
उतरती पालकी को ,
कुनमुनाती धुप
विदा हो रही थी ,
झील के चमकते पानी पर
रात अपना डेरा डाल रही थी ,
सूरज एक दिन निगल चुका था |

मोहिनी चोरडिया


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें