मंगलवार, 29 नवंबर 2011

क्वार मैं


नव उत्सव 
हमारे आँगन आना | 

उमंगों के मेलों को 
चाहत के रेलों को
तुम साथ लाना |

खुशियों की गमक को 
चेहरे की चमक को 
विस्तार दे जाना |

अमावस की रात को 
दीयों की पांत को 
नव आलोक लाना |

पटाखों की लड़ियों को 
बच्चों की फुलझडियों को 
नव उल्लास दे जाना |

हल जोतते भोला को 
खड़ी फसलों को 
नयी मुस्कान दे जाना |

पडौस की बूढ़ी काकी की
अन्दर धंसी आँखों को 
बेटों की चाहत की 
एक झलक दे जाना  |

मोहिनी चोरडिया 
चेन्नई 

सर्जनहार ! तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर ?


आज
मुर्गे की बांग के साथ ही
प्रवेश किया मैंनें
तुम्हारी नगरी में |
रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,
गले लग रही थी
लताओं से बने तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी,
कलियाँ चटक रही थीं,
फूलों का लिबास पहने,
रास्ते के दोनों और खड़े पेड़ों ने
अपनी टहनियां झुकाकर स्वागत किया मेरा
भीनी- भीनी
मनमोहक मादक खुशबू बिखेर,
आमंत्रित किया मुझे,
तुम्हारी नगरी में |

अदभूत नज़ारा था,
ठंडी-ठंडी पुरवाई,
फूलों पर मंडराते भ्रमर गुंजन करते,
सुंदर पंखों वाली तितलियाँ और
उनकी आकर्षक आकृतियाँ
मन को लुभाने लगीं ,
तुम्हारी नगरी में |

पक्षियों का संगान
लगा तुम्हारी सृष्टि का बखान
प्राची में उगते बाल सूर्य की लालिमा से
खूबसूरत बना क्षितिज,
पानी में उतरता उसका अक्स,
यौवन की और बढता वह,
तुम्हारी शक्ति,तुम्हारे बल की
कहानी कहता लगता,
आत्मबल का पर्याय बना ,
धरती को धन्य करता.

जंगल की डगर ...
फूलों से लदी डालियाँ
अंगड़ाई लेती वादियाँ
कुलांचें भरते वन्य जीव
कल -कल बहता पानी
झर-झर झरता झरना
तुम्हारी अजस्त्र ऊर्जा का बहाव,
तुम्हारा ये चमत्कार,
विश्व को तुम्हारा उपहार
तुम्हारी ही नगरी में |

नदी के किनारे खड़े
आकाश को छूते पेड़ों के झुंडों को देखकर लगा
जेसे दे रहे हों सलामी खड़े होकर
तुम्हारी अद्वितीय कारीगरी को
छू रहे थे आसमान,
धरती से जुड़े होने पर भी,
ऊँचाइयों को छूकर लग रहे थे खिले-खिले
तुम्हारी नगरी में |

आगे पर्वतों की चोटियाँ दिखीं
उत्तुंग शिखरों पर कहीं बर्फ की चादर बिछी थी ,
कहीं उतर रहे थे बादल,
अपनी गति .अपने विहार को विश्राम देते
अपनी शक्तियों को पुनः जगाने के लिए,
बूँद-बूँद बन सागर की और जाने के लिए,
ताकि कर सकें विलीन अपना अस्तित्व,
वामन से बन जाएँ विराट .
तुम्हारी ही नगरी में |

खेतों में उगी धान की बालियाँ
कोमल-कोमल ,कच्ची-कच्ची
हवा से हिलतीं
तुम्हारे मृदु स्पर्श को महसूस करतीं ,लजातीं सी
नव जीवन पातीं लग रही थी
तुम्हारी ही नगरी में |

शांत-प्रशांत झीलों में खिलते कमल,
उनमें विहार करते ,चुहुल बाजी करते ,
कभी इतराकर चलते
नहाकर पंख फडफडाते
थकान मिटाते पक्षी,
करा रहे थे सुखद अनुभूति जीवन की ,
तुम्हारी ही नगरी में |

कहीं-कहीं पेड़ों की शाखाओं पर
रुई के फाहे सी उतरती बर्फ का साम्राज्य था,
ठिठुरती रात, गहराता सन्नाटा
अलग ही रूप दिखा रहा था,तुम्हारी सृष्टि का,
तुम्हारी ही नगरी में |

सभी रूपों में नगरी लग रही थी भली,
सहज शांत
कहीं प्रकाश अंधकार बना
तो कहीं अंधकार प्रकाश बनता दिखा
जब अस्त होकर सूरज उदय हुआ.
कहीं जीवन मृत्यु को समर्पित हुआ
तो कहीं मृत्यु से जीवन का प्रस्फुटन दिखा
जब धरती में पड़े बीज ने अंकुर को जन्म दिया |

उतार -चढ़ाव की कहानी कहती
जीवन -मृत्यु की कला सिखाती
तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर|

नदी-नाव ,झील-प्रपात ,
सागर-लहरें ,पर्वत-पक्षी,
सूरज-चाँद ,बादल-आवारा
कलि-फूल ,वन-प्रांतर सारे,
बने खिड़कियाँ तूम्हारे दर्शन के |
में खो गई नगरी की सुन्दरता में,
भूल गई मंजिल ,
खूबसूरत रास्तों में उलझ गई
छल लिया इन्होनें मुझे ,
बांध लिया अपने बाहुपाश में ,
अपने प्यार से अपनी कोमलता से |

तुम्हारी पवित्रता
तुम्हारी उच्चता
तुम्हारी अतुल्यता की 
कहानी कहती, 
ये नगरी कितनी भव्य है ?
जब तुम स्वयं मिलोगे सृष्टा ,
क्या में आँखें चार कर पाउगी ?
तुम्हारी पवित्रता को छूने की पात्रता
अर्जित कर पाऊँगी ?

  • मोहिनी चोरडिया

फिर प्रारम्भ होगा सृष्टि -चक्र


पुरुष !
विवाह रचाओगे ?
पति कहलाना चाहोगे?
पत्नी को प्रताड़ित करना छोड़ ,
अच्छे जीवन साथी बन पाओगे?

मेरी ममता तो जन्मों की भूखी है ,
बच्चों के लिए बिलखती है,
सृष्टि-चक्र, मेरे ही दम पर है ,यह कहते हो ,
फिर भी दुत्कारी जाती है ?

इतिहास के हर यक्ष-प्रश्न का जवाब
में देती आई हूँ
(यक्ष को भी जन्म मैनें ही दिया था )
लेकिन ,लेकिन इस बार प्रश्न मेरे होंगे |

पुरषों ,महापुरुषों को जन्म देने वाली औरत ,
अन्य पुरुषों से ही नहीं ,अपने ही पति से
बलात्कार और तन्हाइयों का शिकार
क्यों होती है ?

ये निर्माणीतान रुक जायेगी
विध्वंस का राग छिडेगा ,यदि
किसी मासूम का गला,
इस दुनियाँ में आने से पहले ही
घुट जाएगा ,या बिलखती मासूम बाहों का
सहारा छिन जाएगा |

मेरे विशेषण तो हर युग में बदले हैं ,
पुरुष के अहंकार ने कभी कुलटा तो कभी दुष्टा कहा,
मातृत्व सुख की चाह जगाकर ,
भीड़ में कहीं खो गया |

आज फिर तुमने ,उसी पुरानी ममता
और मातृत्व सुख का लालच देकर
मुझे रिझाना चाहा है ,लेकिन पुरुष !
मेरी जड़ता को ,मेरी ऋजुता को
अब मैनें पीछे की सीट पर बैठा दिया है, और
मैं जाग्रत होकर अपने जीवन की गाड़ी
स्वयं चलाने लगी हूँ |

हो सकता है मेरा ये बर्ताव ,तुम्हें
मेरी वक्रता लगे ,लेकिन पुरुष !
मेरा वादा रहेगा
जिस दिन तुम्हारा अहंकार पिघल जाए
मुझे याद करना
प्रथम पुरुष मनु और प्रथम स्त्री इडा की तरह
हम अच्छे साथी बनकर
नयी सृष्टि की शुरुआत करेंगे |

मोहिनी चोरडिया

रविवार, 27 नवंबर 2011

अनहद नाद

बस! तुम्हारी सांसों ने छुआ मुझे, और
मैं पिधलकर बहने लगी
जैसे सरिता बहती है,
मिलने को समन्दर से
मेरी देह, मेरा नेह,
सब हो गये आतुर
मिलने को किसी अपने से ।
तुम्हारे मन में उठा था ज्वार,
ठीक वैसे ही
जैसे पूनम के चन्दा को देख,
समन्दर के पानी में
और तुमने भर लिया था,
अंक में अपने मुझे,
जैसे रजनी के अंक में सिमटी,
प्रभात की लाली |
बजने लगा था नाद, अनहद
निःशब्द मौन रात्रि में,
सप्त स्वरों का हुआ गुंजन
लगा, मैं बन गई दुल्हन
एक आवाज़ सुनी मैनें
बहुत गहराई से आती .........
मैं माँ बनना चाहती हूँ
तुम्हारे ही जैसे किसी बच्चे को,
अपने अंक में भरना चाहती हूँ,
और मैं जाग गई
फिर सो न सकी, कितनी ही रातों तक
न ही पा सकी, वो स्पर्श फिर
क्या प्यार के दीवानों को
ऐसी ही तन्हाईयाँ झेलनी पड़ती हैं ?


मोहिनी चोरडिया

श्री रामचंद्र जी के अयोध्या लौटने पर उनके स्वागत में एक गीत


हेली मंगल गाओ आज ,
सहेली मंगल गाओ आज |

ढोल नगाड़ा नौपत बाजे
अयोध्या में आज
तोरण द्वार सजे सब आँगन
कौशल्या घर आज |

मोत्यां चौक पुरावो है सखी
झिलमिल आरती थाल
रामचंद्र जी लौटेंगे सखी
सीता लखन संग आज |

शुभ घड़ी आई भ्राता मिलाई
दशरथ के घर आज
भरत की तपस्या लायेगी
सखी ! खुशियों का अम्बार |

उर्मिला की होगी साधना
पूरी है सखी आज
कैकेयी ,सुमित्रा के मन पुलकित ,
पूरे हुए सब काज |

अमावस की रात सजेगी
अयोध्या नगरी आज
घी के दीपों की जगमग होगी
उत्सव मनेगा आज |

मोहिनी चोरडिया


वो प्यार भरे पल

वो पल सबसे अच्छे थे
जो गुज़रे थे तेरी बाहों में ।

खयालों में उन पलों को जी लेती हूँ
उन सांसों की सरगम से
मन को भिगो लेती हूँ
वो पल वापस नहीं लोटेंगे, मुझे पता है
उन स्मृतियों से आँखों को
नम कर लेती हूँ ।

उन पलों ने बुना था
ख्वाबों का सिलसिला
उन पलों ने बुना था
प्यार का फलसफा
उन पलों ने बुना था
गीत एक अनकहा
उन पलों ने दिया था
मीत एक मनचहा|

मृदंग बज उठे थे मन में
बदन में सिहरन, होंठों पे थिरकन
नयनों में प्यार की बदली
छलक उठी थी
उस पल में
तुमने लुटाया था
अपने प्यार का पराग
जिस पल में ।

मोहिनी चोरडिया

अनकही

एक दोपहर अलसायी सी
सब ओर सन्नाटा पसरा था
घर की बालकनी में खड़ी,
कुछ अनमनी सी मैं ।
सामने की दीवार पर बैठी,
गांव की एक अल्हड़ किशोरी
बाट जोहती सी,
एक किशोर मतवाला,
आकर लगा बतियाने
पकड़कर हाथ उसका
एक सिहरन दौड़ गई थी,
अन्दर मेरे
पहली बार महसूस किया था मैनें,
गहराई से,
तुम्हारे पास नहीं होने को,
और वह निगोड़ी चिरैया, उसने
एहसास कराया था मुझे,
तुम्हारे पास नहीं होने का, जब वो
चोंच लड़ा रही थी, अपने सखा से
फुदक-फुदक कर चँहक-चँहक कर,
लगा, कुछ रिस गया,
भीग गई थी मैं,
जब सामने के पेड़ की इक टहनी पर
दो फूल खिल रहे थे,
गले मिल रहे थे
दिल ने कहा था,
यही प्यार है शायद ...
आँखें भूल गई थीं सोना,
पलकें, बन्द होना,
कई रातें गवाह बनी थीं,
चाँद और चाँदनी की
आँख मिचौनी देखने की ।

मोहिनी चोरडिया

पुरुष और प्रकृति

जब उठाया घूंघट तुमने,
दिखाया मुखड़ा अपना
चाँद भी भरमाया
जब बिखरी तुम्हारे रूप की छटा
चाँदनी भी शरमायी
तुम्हारी चितवन पर
आवारा बादल ने सीटी बजाई ।
तुमने ली अगंड़ाई, अम्बर की बन आई
तुमसे मिलन की चाह में फैला दी बाहें,
क्षितिज तक उसने
भर लिया अंक में तुम्हें, प्रकृति, उसने
तुम्हारे गदराये बदन, मदमाते यौवन पर,
भँवरे की तरह
फिदा होकर, तुम्हारे रसीले होठों से
रसपान किया उसने ।
नारी ने तुमसे ही सीखा श्रृंगार, प्रकृति
पुरुष ने सीखी मनुहार
एक रिश्ता कायम हुआ फिर
‘समर्पण’ का
पुरुष की कठोरता और
नारी की मधुरता का
पुरुष की मनुहार और
नारी की लज्जा का
पुरुष और प्रकृति एकाकार हुए ।


मोहिनी चोरडिया

स्त्री और प्रकृति

प्रकृति और स्त्री
स्त्री और प्रकृति
कितना साम्य ?
दोनों में ही जीवन का प्रस्फुटन
दोनों ही जननी
नैसर्गिक वात्सल्यता का स्पंदन,
अन्तःस्तल की गहराइयों तक,
दोनों को रखता एक धरातल पर
दोनों ही करूणा की प्रतिमूर्ति
बिरले ही समझ पाते जिस भाषा को
दोनों ही सहनशीलता की पराकाष्ठा दिखातीं
प्रेम लुटातीं उन पर भी,
जो दे जाते आँसू इन्हें,
आहत कर जाते,
छलनी बना देते इनके मन को,
कुचल जाते, रौंद जाते इनके तन बदन को,
दुनियाँ की स्वार्थलिप्सा का शिकार
बनतीं बार-बार
लेकिन माफ़ कर जातीं हर बार
गफ़लत में जी रही दुनियाँ,
ये नहीं समझ पा रही
जब जागेंगीं,
दोनों, जननी और जन्मभूमि,
स्त्री और प्रकृति
दिखा देंगीं अपना रूप,
महिषासुर मर्दिनी का
करेंगी संहार असुरता का, क्रूरता का
करा देंगी साक्षात्कार
पीड़ा के उस दंश का, जो
मिलता रहा आजीवन इन्हें
अपनों से ही ।
मोहिनी चोरडिया

अस्तित्व की तलाश

मेरी मित्र ने एक दिन कहा
में" सेल्फ्मेड " हूँ
में असमंजस में पड़ी रही ,
सोचती रही ,
क्या ये सच है ?
भावो की धारा ने झकझोरा
एक नवजात शिशु की किलकारी ने
अनायास ही मेरा ध्यान बटोरा
इस शिशु को बनाने वाले बीज
कह रहे थे ,माते | हमें धारण करो
हमारा पोषण करो ,
हमें अपने रक्त से सींचो
तभी हम अपना अस्तित्व बनाये रख सकेंगे .
जैसे बीज बोने के बाद
धरती उसे धारण करती है
आकाश से पिता तुल्य सूर्य
अपनी ऊष्मा देते हैं ,उर्जा देते हैं
बदली अमृत तुल्य जल बरसाकर
अपना प्यार लुटाती है .
माली उसे सींचता है अपने दुलार से
धरती का कण -कण
या कहें पूरी कायनात
उस बीज की सुरक्षा में लग जाती है
उसका अस्तित्व बचाती है
और एक दिन बीज पेड़ बनता है ,
मधुर पेड़ ,जिसमें
सुंदर -सुंदर फूल खिलते हैं
प्रकृति की अभिव्यक्ति का
सबसे सुन्दर रूप
उस दिन देखने को मिलता है .
शिशु को भी एक पुरुष ,
योग्यतम पुरुष बनाने में ,
कई अनजान शक्तियां
अपनी ताकत लगा देती हैं
तब जाकर प्रकृति की
श्रेष्ठतम रचना सामने आती है
और यदि वह कहे की में "सेल्फमेड" हूँ तो
यह उसकी नादानी है,उसका अहंकार है
जो एक दिन उसे वापस
पहुंचा देगा वहीँ,उसी निचले धरातल पर
जहाँ उसका अस्तित्व
फिर-फिर अभिव्यक्ति की तलाश में होगा |
मोहिनी चोरडिया

बुधवार, 16 नवंबर 2011

सर्जनहार

किसी को फूल किसी को कांटे
तुमने ही शायद बांटे
उलझाते हो तो सुलझाते भी तुम्ही हो
गिराते हो तो उठाते भी तुम्ही हो
तुम्हारी ताकत को तोलना
मेरी सामर्थ्य में नहीं
हाँ ,मेरी ताकत को तोलने की
तुम पूरी कोशिश करते हो
मेरी हार में तुम हँसते हो
मेरी जीत में तुम हंसते हो
क्योंकि दोनों तुम्हारे हाथ में ही हैं
मैं कमज़ोर इंसान
हार में रोता
जीत में हंसता हूँ
बिना ये समझे कि
मेरी हार होती है तुम्हारे ही आदेश से,
जीत की खुशी क्या होती है
शायद ये समझाने के लिए |
मोहिनी चोरडिया

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

पालनकर्ता

भोर
सोया जगता सा जीवन, बस
यही समय है
प्रार्थना करने का
आज के दिन की यात्रा
आरम्भ करने का |

यही समय है ,जब
हाथ उठें उसकी प्रशंसा में
उसके सम्मान में
जिसकी सारी कलाकृतियां
मन को लुभा लेती हैं|
आल्हादित कर जाती हैं|

चाहे दुधिया नीले पहाड़ों पर
उतरती सुनहरी धूप हो
या सुनहरी रुपहरी, मोतियाँ ,बैंजनी
बादलों से बना क्षितिज़
और उसकी ओट से झांकता
बस वह ही नज़र आता है
संसार का पालनकर्ता
सात घोड़ों के रथ पर सवार |

मुस्कुराते फूल हों और
उत्सव मनाते बगीचे
या गीत गाते खेत
प्रसन्नता से झूमती लहराती
गेहूं की बालियाँ हों
या इतराती नाचती तितलियाँ|

तारों की बरात हो
या धवल चाँदनी
अठखेलियां करती चन्दा से
मन को पुलक और आँखों को तृप्ति देते
हर जगह फैले हैं
उसके ही रंग |

कंहीं मंदिर के पट खुलते हैं
तो कंहीं घंटे ,घडियालों की कर्णप्रिय ध्वनि
दूर से आती चितपरिचित सी लगती है
लगता है सुन रही हूँ इन्हें जन्मों से
और सुनती रहूंगी आगे भी
जहाँ भी मैं रहूँ |

मोहिनी चोरडिया