गुरुवार, 22 सितंबर 2011

वो पल



एक पल प्यार है
एक पल खुमार है
एक पल बयार है
एक पल फुहार है,
कौन जाने,
कब फिसल जाये जीवन की मुटठी से,
क्यों न इसे बांध लें, नयनों के कोने में|
इसी पल ने चाहत दी
इसी पल ने दी खुशी
इसी पल ने बुने गीत
इसी पल में मिला मीत
क्यों न इसे उतार लें हृदय के कोने में |
यह पल चला गया, तो
फिर नहीं आयेगा
यह पल चला गया, तो
मीत रूठ जायेगा
क्यों न उसे पुकार लें, प्यार की गुहार से ।
मोहिनी चोरडिया

रविवार, 18 सितंबर 2011

रूप तुम्हारा

चम्पा जैसा रंग तुम्हारा
खिला -खिला सा
सुबह की धूप सा
सुनहरी ,
गंध तुम्हारी जैसे
गुलाब की कली ने खोल दी हों
पंखुडियां ,
तुम्हारे सुकुमार चेहरे पर
अभी -अभी धुले बालों से
झर रही पानी की बूंदें
जैसे छिटकी ओस की बूँदें पत्तों पर
लगती हैं प्यारी ,
तुम्हारा रूप पावस में नहाया सा ,
या
खिला हो कमल जैसे ,
अदृश्य पवन सी तुम
बहती हो
एहसास करातीं
तुम्हारी उपस्तिथि का ,
मेरा मन तुम्हें
अपना बना लेता है
तुम्हें देखना चाहता है
बिलकुल वैसा ही
जैसा मैनें तुम्हें देखा था
बरसों पहले
जब तुम निकल रहीं थीं
बाहर, कॉलेज की लाइब्रेरी से |

मोहिनी चोरडिया

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

आत्मजागरण


में स्त्री हूँ
रत्नगर्भा ,धारिणी,
पालक हूँ, पोषक हूँ
अन्नपूणा,
रम्भा ,कमला ,मोहिनी स्वरूपा
रिद्धि- सिद्धि भी में ही ,
शक्ति स्वरूपा ,दुर्गा काली ,महाकाली ,
महिषासुरमर्दिनी भी में ही
में पुष्ट कर सकती हूँ जीवन
तो नष्ट भी कर सकती हूँ ,
धरती और उसकी सहनशीलता भी में
आकाश और उसका नाद भी में
आज तक कोई भी यज्ञ पूर्ण नहीं हो सका 
मेरे बगैर , फिर भी 
पुरुष के अहंकार ने ,उसके दंभ ,उसकी ताकत ने ,
मेरी गरिमा को छलनी किया हमेशा ही
मजबूर किया अग्नि -परीक्षा देने को ,
कभी किया चीर-हरण ...
उस खंडित गरिमा के घावों की मरहम -पट्टी न कर
हरा रखा मैंनें उनको ,
आज नासूर बन चुके हैं वो घाव
रिस रहे हैं
आज में तिरस्कार करती हूँ ,
नारीत्व का ,स्त्रीत्व का, मातृत्व का ,
किसी के स्वामित्व का ,
अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए
टकराती हूँ ,पुरषों से ही नहीं ,पति से भी
( पति भी तो पुरुष ही है आखिर )
स्वयं बनी रहती हूँ पुरुषवत, पाषाणवत ,कठोर
खो दी है मैंनें
अपने अन्दर की कोमलता ,
अपने अन्दर की अलहड़ता,
अपने अन्दर की मिठास
जो लक्षण होता है स्त्रीत्व का
वह वात्सल्य ,
जो लक्षण होता है मातृत्व का
नारी मुक्ति की हिमायती बनी में
आज नहीं पालती बच्चों को
आया की छाया में पलकर
कब बड़े हो जाते हैं
मुझे पता नहीं ,क्योंकि
में व्यस्त हूँ अपनी जीरो फिगर को बनाए रखने में,
में व्यस्त हूँ उंची उड़ान भरने में
लेकिन आत्म-प्रवंचना आत्मग्लानी जागी एक दिन
जब मेरे ही अंश ने मुझे
दर्पण दिखाया
उसके पशुवत व्यवहार ने मुझे
स्त्रीत्व के धरातल पर लौटाया ,
एक क्षण में आत्म-दर्शन का मार्ग खुला
मेरी प्रज्ञा ने मुझे धिक्कारा
फटी आँखों से मैनें अपने को निहारा
पूछा अपने आप से ,तुम्हारा ही फल है ना ये ?
मिठास देतीं तो मिठास पातीं
संस्कार देतीं तो संस्कार पाता
वह अंश तुम्हारा
"पर नारी मातृवत' के
न बनता अपराधी वह
अगर मिलती गहनता संस्कारों की 
सृजन के लिए जरूरी हे स्त्रीत्व ,पौरुषत्व
दोनों के मिलन की
मन और आत्मा के मिलन की
आज जाग गई हूँ
प्रण करती हूँ ,अब ना सोउंगी कभी
आत्म-जागरण के इस पल को न खोउंगी कभी
पालूंगी, पोसूगी अपने अंश को
दूंगी उसे घुट्टी लोरियों में
अच्छा पुरुष, अच्छी स्त्री बनने की
जैसे दी थी जीजाबाई ने शिवाजी को
जैसे दी थी माँ मदालसा ने अपने बच्चों को
करेंगे मानवता का सम्मान
तभी बढ़ेगा मेरी कोख का मान |

मोहिनी चोरडिया

फिर प्रारम्भ होगा सृष्टिचक्र


पुरुष !
विवाह रचाओगे ?
पति कहलाना चाहोगे?
पत्नी को प्रताड़ित करना छोड़ ,
अच्छे जीवन साथी बन पाओगे?

मेरी ममता तो जन्मों की भूखी है ,
बच्चों के लिए बिलखती है,
सृष्टि-चक्र, मेरे ही दम पर है ,यह कहते हो ,
फिर भी दुत्कारी जाती है ?

इतिहास के हर यक्ष-प्रश्न का जवाब
में देती आई हूँ
(यक्ष को भी जन्म मैनें ही दिया था )
लेकिन ,लेकिन इस बार प्रश्न मेरे होंगे |

पुरषों ,महापुरुषों को जन्म देने वाली औरत ,
अन्य पुरुषों से ही नहीं ,अपने ही पति से
बलात्कार और तन्हाइयों का शिकार
क्यों होती है ?

ये निर्माणीतान रुक जायेगी
विध्वंस का राग छिडेगा ,यदि
किसी मासूम का गला,
इस दुनियाँ में आने से पहले ही
घुट जाएगा ,या बिलखती मासूम बाहों का
सहारा छिन जाएगा |

मेरे विशेषण तो हर युग में बदले हैं ,
पुरुष के अहंकार ने कभी कुलटा तो कभी दुष्टा कहा,
मातृत्व सुख की चाह जगाकर ,
भीड़ में कहीं खो गया |

आज फिर तुमने ,उसी पुरानी ममता
और मातृत्व सुख का लालच देकर
मुझे रिझाना चाहा है ,लेकिन पुरुष !
मेरी जड़ता को ,मेरी ऋजुता को
अब मैनें पीछे की सीट पर बैठा दिया है, और
मैं जाग्रत होकर अपने जीवन की गाड़ी
स्वयं चलाने लगी हूँ |

हो सकता है मेरा ये बर्ताव ,तुम्हें
मेरी वक्रता लगे ,लेकिन पुरुष !
मेरा वादा रहेगा
जिस दिन तुम्हारा अहंकार पिघल जाए
मुझे याद करना
प्रथम पुरुष मनु और प्रथम स्त्री इडा की तरह
हम अच्छे साथी बनकर
नयी सृष्टि की शुरुआत करेंगे |

मोहिनी चोरडिया

ताज_ एक अलग अन्दाज़


शाहजहां और मुमताज़ के प्रणय का गान , ताज
एक और प्रणय कहानी का आगाज़ |
यमुना के किनारे ताज,
लिए खडा है किसी की याद
सदियों से दे रहा पैगाम
प्यार दौलत है जिन्दगी की |
यमुना को नाज़ है ताज पर
या ताज को अपनी यमुना पर ?
सांवली सलोनी यमुना ,
दूध धुला, मोती की आभा लिए ताज ,
चाँदनी रात में दोनों बतियाते तो होंगे,
अपनी प्रेम कहानी पर इठलाते तो होंगे |
ताज महान है
क्योंकि ,यमुना का दर्द कभी
होठो तक नहीं आया
उसके किनारे , उसका जल
बस पखारते ही रहे ,ताज के चरण
एक पतिव्रता स्त्री की तरह ,समर्पित से ,
गुम्बज और कंगूरे हो जाते हें महान
नींव की मजबूती से ,
नींव के पत्थर के बलिदान से
लेकिन ,कहाँ मिलते हैं कद्रदान ?
जो समझ सकें दर्द, उस नींव के पत्थर का ,
यमुना के उस कूल का
जिसने ताज को महान बना रखा है |
प्यार भी दौ़लत तभी बनता है
जब दर्द दिल में रहे और होंठ सिले ,
प्यार मांगता है बलिदान ,प्यार मांगता है समर्पण
यमुना के तट की तरह
तभी ताज बनता हे महान |
मोहिनी चोरडिया

बुधवार, 14 सितंबर 2011

फिर प्रारम्भ होगा सृष्टिचक्र

पुरुष !
विवाह रचाओगे ?
पति कहलाना चाहोगे?
पत्नी को प्रताड़ित करना छोड़ ,
अच्छे जीवन साथी बन पाओगे?

मेरी ममता तो जन्मों की भूखी है ,
बच्चों के लिए बिलखती है,
सृष्टि-चक्र, मेरे ही दम पर है ,यह कहते हो ,
फिर भी दुत्कारी जाती है ?

इतिहास के हर यक्ष-प्रश्न का जवाब
में देती आई हूँ
(यक्ष को भी जन्म मैनें ही दिया था )
लेकिन ,लेकिन इस बार प्रश्न मेरे होंगे |

पुरषों ,महापुरुषों को जन्म देने वाली औरत ,
अन्य पुरुषों से ही नहीं ,अपने ही पति से
बलात्कार और तन्हाइयों का शिकार
क्यों होती है ?

ये निर्माणीतान रुक जायेगी
विध्वंस का राग छिडेगा ,यदि
किसी मासूम का गला,
इस दुनियाँ में आने से पहले ही
घुट जाएगा ,या बिलखती मासूम बाहों का
सहारा छिन जाएगा |

मेरे विशेषण तो हर युग में बदले हैं ,
पुरुष के अहंकार ने कभी कुलटा तो कभी दुष्टा कहा,
मातृत्व सुख की चाह जगाकर ,
भीड़ में कहीं खो गया |

आज फिर तुमने ,उसी पुरानी ममता
और मातृत्व सुख का लालच देकर
मुझे रिझाना चाहा है ,लेकिन पुरुष !
मेरी जड़ता को ,मेरी ऋजुता को
अब मैनें पीछे की सीट पर बैठा दिया है, और
मैं जाग्रत होकर अपने जीवन की गाड़ी
स्वयं चलाने लगी हूँ |

हो सकता है मेरा ये बर्ताव ,तुम्हें
मेरी वक्रता लगे ,लेकिन पुरुष !
मेरा वादा रहेगा
जिस दिन तुम्हारा अहंकार पिघल जाए
मुझे याद करना
प्रथम पुरुष मनु और प्रथम स्त्री इडा की तरह
हम अच्छे साथी बनकर
नयी सृष्टि की शुरुआत करेंगे |

मोहिनी चोरडिया

रविवार, 11 सितंबर 2011

ताज-एक नया अंदाज़

शाहजहां और मुमताज़ के प्रणय का गान , ताज

एक और प्रणय कहानी का आगाज़ |


यमुना के किनारे ताज,

लिए खडा है किसी की याद

सदियों से दे रहा पैगाम

प्यार दौलत है जिन्दगी की |


यमुना को नाज़ है ताज पर

या ताज को अपनी यमुना पर ?

सांवली सलोनी यमुना ,

दूध धुला, मोती की आभा लिए ताज ,

चाँदनी रात में दोनों बतियाते तो होंगे,

अपनी प्रेम कहानी पर इठलाते तो होंगे |


ताज महान है

क्योंकि ,यमुना का दर्द कभी

होठो तक नहीं आया

उसके किनारे , उसका जल

बस पखारते ही रहे ,ताज के चरण

एक पतिव्रता स्त्री की तरह ,समर्पित से|


गुम्बज और कंगूरे हो जाते हें महान

नींव की मजबूती से ,

नींव के पत्थर के बलिदान से

लेकिन ,कहाँ मिलते हैं कद्रदान ?

जो समझ सकें दर्द, उस नींव के पत्थर का ,

यमुना के उस कूल का

जिसने ताज को महान बना रखा है |


प्यार भी दौ़लत तभी बनता है

जब दर्द दिल में रहे और होंठ सिले ,

प्यार मांगता है बलिदान ,प्यार मांगता है समर्पण

यमुना के तट की तरह

तभी ताज बनता है महान |


मोहिनी चोरडिया


जीवन की क्षणभंगुरता


में
तन्हा खामोश बैठी
एक दिन
निहार रही थी
अपना ही प्रतिबिम्ब
खूबसूरत झील में
कई पक्षी
क्रीडा कर रहे थे ,
नावों में बैठे
कई जोड़े
अठखेलियाँ करती
सर्द हवा को
गर्मी दे रहे थे |
झील के किनारे खड़े
ऊँचे - ऊँचे दरख्त भी
हिल रहे थे
गले मिल रहे थे ,
तभी एक चील ने
अचानक तेजी से
गोता लगाया
किनारे आई मछली को
मुँह में दबा
जीवन क्षण- भंगुर है
यह एहसास कराया |
आज जो प्रतिबिम्ब
दिखे थे पानी में
कल वो रहेंगे या नहीं
यह समझाया |
अगले दिन झील पर
अलग ही समां था
न सर्द हवा
न दरख्तों का हिलना
झील के ठहरे से
पानी में कश्तियों का बहना ,
थोड़ा कोलाहल
ठहरी कश्ती में बैठी में
निहार रही थी
झील के पानी में
गोता लगाते
सूरज के प्रतिबिम्ब को ,
शान्त नीरव सांझ की
उतरती पालकी को ,
कुनमुनाती धुप
विदा हो रही थी ,
झील के चमकते पानी पर
रात अपना डेरा डाल रही थी ,
सूरज एक दिन निगल चुका था |

मोहिनी चोरडिया


सावन के झूले



मौसम आया लुभावना मनभावना
चलो सखी झूला झूलें |
झूला झुलाने सखी पी मेरे आये
तन मन हुआ लुभावना
चलो सखी झूला झूलें |

पड़ रही फुहारें सावन की
सावन की मन भावन की
मौसम बड़ा सुहावना
चलो सखी झूला झूलें |
मेघा गरजे रिमझिम बरसे
बिजली हिय में कोंधे
कोयल कूक लगावना
चलो सखी झूला झूलें |

धानी चूनर ओढ ली सखी
साजन के रंग में रंगी
प्रियतम प्रीत लुटावना
मन्द- मन्द मुस्कावना
चलो सखी झूला झूलें |

मोहिनी चोरडिया

सावन के झूले



मौसम आया लुभावना मनभावना
चलो सखी झूला झूलें |
झूला झुलाने सखी पी मेरे आये
तन मन हुआ लुभावना
चलो सखी झूला झूलें |

पड़ रही फुहारें सावन की
सावन की मन भावन की
मौसम बड़ा सुहावना
चलो सखी झूला झूलें |
मेघा गरजे रिमझिम बरसे
बिजली हिय में कोंधे
कोयल कूक लगावना
चलो सखी झूला झूलें |

धानी चूनर ओढ ली सखी
साजन के रंग में रंगी
प्रियतम प्रीत लुटावना
मन्द- मन्द मुस्कावना
चलो सखी झूला झूलें |

मोहिनी चोरडिया

मुक्तक


लो! मैनें मिटा ली अपनी हस्ती आज,
शायद, तुम्हारे ख्वाबो को मिल सके परवाज|

तुम्हारे कदमों के निशां ,दूर तक चलें, 
लो मैनें बदल ली अपनी राह |

मुक्तक


  
तुम करीब आये हो प्रियतम
मन बन गया मधुबन मेरा
तुमने प्रीत का रस उंडेला 
खिल गया मन कमल मेरा |


मंजिल की बात करना 
मुश्किल राहों के बगैर 
ऐसे  ही है जैसे सोचे कोई 
एक गुलाब काँटों के बगैर |


फूलों का मुस्कुराना 
काँटों के बल पर ही है 
वे अक्सर बुरी नज़र का 
शिकार हो जाते हैं ,
जिन गुलों की हिफाज़त
काँटे नहीं करते  | 

मोहिनी चोरडिया 

सर्जनहार !तुम्हारी नगरी कितनी सुन्दर



मुक्तक


 हमने कुछ किया तो उसे
 फ़र्ज  बताया गया 
 उन्होंनें कुछ किया तो उसे
 क़र्ज बताया गया 
आओ! विसंगतियां  देखें जीवन की 
अपनी सुविधानुसार हमें
शब्दों का अर्थ समझाया गया |

पाकर खुशी मेरे आँसू निकल पड़े ,
उन्होंनें समझा मै दु:खी हूँ 
मै अन्दर उदास,बाहर से हँस रही थी 
उन्होंने समझा मै खुश हूँ ,
चीजें जैसी दिखती हैं वैसी होती नहीं 
और कभी-कभी जैसी होती हैं 
वैसी दिखतीं नहीं 
तभी तो उन्होंनें, न मेरी हँसी के 
पीछे छिपे दर्द को समझा 
और न उस खुशी को ,
जो आंसुओं में बह रही थी  
पानी में मीन पियासी
और भीड़ में भी
आदमी तन्हा हो सकता है 

  
  

  •