बुधवार, 27 जुलाई 2011

सावन के झूले



सावन
मौसम आया लुभावना मनभावना
चलो सखी झूला झूलें |

झूला झुलाने सखी पी मेरे आये
तन मन हुआ लुभावना
चलो सखी झूला झूलें |
पड़ रही फुहारें सावन की
सावन की मन भावन की
मौसम बड़ा सुहावना
चलो सखी झूला झूलें |
मेघा गरजे रिमझिम बरसे
बिजली हिय में कोंधे
कोयल कूक लगावना
चलो सखी झूला झूलें |
धानी चूनर ओढ ली सखी
साजन के रंग में रंगी
प्रियतम प्रीत लुटावना
मन्द- मन्द मुस्कावना
चलो सखी झूला झूलें |

मोहिनी चोरडिया

सावन

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

तुम्हारा मेरा ये साथ

तुम आई थीं
मेरे अंगना
घुंघरू बजातीं
शीतल चाँदनीबनकर
चोदहवीं के चाँद की

गूँथ दिया था
सारे परिवार को गेंदे के फूल सा
भर दिया था उजाला
सभी के मन में|

तुम्हारी मुस्कान से लज्जित
हुआ था आईना
ढेर सी तम्म्नाएं जगी थीं
मन में

तुमने पूरा किया उन्हें
प्यार,ममता,स्नेह ,अपनेपन को
तुम लाइ थीं
अपने आँखों में भरकर

आज २५ वर्ष बाद भी
मेरा तुम्हारा ये साथ
उतना ही नया हे ,
जितना प्रथम दिन था |

मोहिनी चोरडिया




मेरी माँ

एक दिन माँ सपने में आई
कहने लगी, सुना है
तूने कविताएँ बनाईं ?
मुझे भी सुना वो कविताएँ
जो तूने सबको सुनाई
मैं अचकचाई
माँ की कहानी माँ को ही सुनाऊँ !
माँ तो राजा- रानी की कहानी
सुनाती थी
उसे एक आम औरत की कहानी कैसे सुनाऊँ ?
माँ इंतजार करती रही
जैसा जीवन में करती थी,
कभी खाना खाने के लिए
तो कभी देर से घर आने पर
घबराई सी देहरी पर बैठी
पिताजी की डांट से बचाने के लिए |
आँखें नम हुईं
आवाज भर्राई
अपने को नियंत्रित कर
उससे आँखें मिलाये बगैर
उसे कविता सुनाई |
एक औरत थी
औसत कद , सुंदर चेहरा
सुघड़ देह
बड़ी- बड़ी आँखें
घूँघट से बाहर झाँकतीं
सुबह घर को, दोपहर बच्चों को
रात पति को देती
हमेशा व्यस्त रहती
पति की प्रताड़ना सहती ,
बच्चों को बड़ा करती
घर आये मेहमानों का स्वागत करती ,
सत्कार करती
फिर भी कभी न थकती
पति और बच्चों की खातिर
जिसकी रात भी दिन ही रहती
सुघड हाथों से घडी गई रोटियां क्या, सभी पकवान
रसोई घर की बढ़ाते शान .
जो कम रुपयों में भी घर चला लेती
मुफ़लिसी में भी
सभी रिश्ते निभा लेती .
शरीर की शान, आभूषण, रहित रहती
लज्जा को अपना आभूषण कहती
बुरे वक्त में
घर की इज्जत बचाती
शरीर से छोटी वो
अपने कद को हमेशा उँचा रखती ,
बस देना ही जो अपना धर्म मानती
पति की सेवा ,बच्चों की परवरिश में
पूरा जीवन निकाल
एक दिन हो गई निढाल
जीवन की अंतिम सांस
बेटी की गोदी में निकाल
विदा कह गई इस जीवन को
शायद यह कहती -कहती
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ,
मैंने माँ की और देखा,
माँ का चेहरा सपाट था
बिना उन हाव-भावों के जो राजा -रानी की कहानी
सुनाते वक्त उसके चेहरे पर होते थे ,
..वो धीमे से मुस्कुराई ,फिर कहा ..
सच ही लिखा है, औरत की तकदीर जन्मों से यही है
.फिर भी एक कविता ऐसी लिख
जिसमें एक राजा हो एक रानी हो
दोनों की सुखद कहानी हो .
सपने तो अच्छे ही बुननें चाहियें
शायद कभी सच हो जाएँ !
वो वापस चली गई यह कहकर
फिर आउंगी ,लिख कर रखना राजा- रानी की कहानी
कभी तो सच होगी ?
जो मेनें अपनी बेटियों के लिए बुनी थी |
मोहिनी चोरडिया

अस्तित्व की तलाश


मेरी मित्र ने एक दिन कहा

में" सेल्फ्मेड " हूँ

में असमंजस में पड़ी रही ,

सोचती रही ,

क्या ये सच है ?

भावो की धारा ने झकझोरा

एक नवजात शिशु की किलकारी ने

अनायास ही मेरा ध्यान बटोरा

इस शिशु को बनाने वाले बीज

कह रहे थे ,माते | हमें धारण करो

हमारा पोषण करो ,

हमें अपने रक्त से सींचो

तभी हम अपना अस्तित्व बनाये रख सकेंगे .

जैसे बीज बोने के बाद

धरती उसे धारण करती है

आकाश से पिता तुल्य सूर्य

अपनी ऊष्मा देते हैं ,उर्जा देते हैं

बदली अमृत तुल्य जल बरसाकर

अपना प्यार लुटाती है .

माली उसे सींचता है अपने दुलार से

धरती का कण -कण

या कहें पूरी कायनात

उस बीज की सुरक्षा में लग जाती है

उसका अस्तित्व बचाती है

और एक दिन बीज पेड़ बनता है ,

मधुर पेड़ ,जिसमें

सुंदर -सुंदर फूल खिलते हैं

प्रकृति की अभिव्यक्ति का सबसे सुन्दर रूप

उस दिन देखने को मिलता है .

शिशु को भी एक पुरुष ,

योग्यतम पुरुष बनाने में ,

कई अनजान शक्तियां

अपनी ताकत लगा देती हैं

तब जाकर प्रकृति की श्रेष्ठतम रचना सामने आती है

और यदि वह कहे की में "सेल्फमेड" हूँ तो

यह उसकी नादानी हे ,उसका अहंकार है

जो एक दिन उसे वापस

पहुंचा देगा वहीँ ,उसी निचले धरातल पर

जहाँ उसका अस्तित्व

फिर-फिर अभिव्यक्ति की तलाश में होगा |


मोहिनी चोरडिया


सर्जनहार

 हवा के पंखो पर चढ़कर
आती है तेरी खुशबू
नदियों के जल के साथ बहकर
कभी प्रपात बनकर, निनाद करती
अमृत सी झरती
आती है तेरी मिठास |
सूरज बनकर आता है कभी
सात घोड़ो के रथ पर सवार तू
अपनी किरणों से देता है जीवन
धरा के सकल चराचर प्राणियों को
ओर देता है ऊष्मा
धान पकने के लिए
अम्बर बनकर देता है जगह/अवकाश
हम सबको
ढक लेता है पिता सा
वरद हस्त बन, और
धरा धारण कर लेती है हमें
माँ बनकर
इससे अधिक प्रमाण और क्या मिलेगा
तेरे होने का ?
प्रकृति का कण- कण कहता
तेरी सुन्दरता की कहानी
तेरी सम्पूर्णता ही
हमारा जीवन है, सुंदरतम जीवन
सत्यम शिवम् सुन्दरम |
तेरी पूर्णता देखनी हो तो
तेरी बनाई प्रकृति के सभी अंशो से
प्यार करना होगा |

मोहिनी चोरडिया

सर्जनहार ! तुम्हारी नगरी कितनी सुन्दर


आज
मुर्गे की बांग के साथ ही
प्रवेश किया मैंनें तुम्हारी नगरी में .
रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,
गले लग रही थी
लताओं से बने तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी,
कलियाँ चटक रही थीं,
फूलों का लिबास पहने,
रास्ते के दोनों और खड़े पेड़ों ने
अपनी टहनियां झुकाकर स्वागत किया मेरा
भीनी- भीनी
मनमोहक मादक खुशबू बिखेर,
आमंत्रित किया मुझे,
तुम्हारी नगरी में |

अदभूत नज़ारा था,
ठंडी-ठंडी पुरवाई,
फूलों पर मंडराते भ्रमर गुंजन करते,
सुंदर पंखों वाली तितलियाँ और
उनकी आकर्षक आकृतियाँ
मन को लुभाने लगीं ,
तुम्हारी नगरी में |

पक्षियों का संगान
लगा तुम्हारी सृष्टि का बखान
प्राची में उगते बाल सूर्य की लालिमा से
खूबसूरत बना क्षितिज,
पानी में उतरता उसका अक्स,
यौवन की और बढता वह,
तुम्हारी शक्ति,तुम्हारे बल की कहानी कहता लगता,
आत्मबल का पर्याय बना ,
धरती को धन्य करता.

जंगल की डगर ...
फूलों से लदी डालियाँ
अंगड़ाई लेती वादियाँ
कुलांचें भरते वन्य जीव
कल -कल बहता पानी
झर-झर झरता झरना
तुम्हारी अजस्त्र ऊर्जा का बहाव,
तुम्हारा ये चमत्कार,
विश्व को तुम्हारा उपहार
तुम्हारी ही नगरी में |

नदी के किनारे खड़े
आकाश को छूते पेड़ों के झुंडों को देखकर लगा
जेसे दे रहे हों सलामी खड़े होकर
तुम्हारी अद्वितीय कारीगरी को
छू रहे थे आसमान,
धरती से जुड़े होने पर भी,
ऊँचाइयों को छूकर लग रहे थे खिले-खिले
तुम्हारी नगरी में |

आगे पर्वतों की चोटियाँ दिखीं
उत्तुंग शिखरों पर कहीं बर्फ की चादर बिछी थी ,
कहीं उतर रहे थे बादल,
अपनी गति .अपने विहार को विश्राम देते
अपनी शक्तियों को पुनः जगाने के लिए,
बूँद-बूँद बन सागर की और जाने के लिए,
ताकि कर सकें विलीन अपना अस्तित्व,
वामन से बन जाएँ विराट .
तुम्हारी ही नगरी में |

खेतों में उगी धान की बालियाँ
कोमल-कोमल ,कच्ची-कच्ची
हवा से हिलतीं
तुम्हारे मृदु स्पर्श को महसूस करतीं ,लजातीं सी
नव जीवन पातीं लग रही थी
तुम्हारी ही नगरी में |

शांत-प्रशांत झीलों में खिलते कमल,
उनमें विहार करते ,चुहुल बाजी करते ,
कभी इतराकर चलते
नहाकर पंख फडफडाते
थकान मिटाते पक्षी,
करा रहे थे सुखद अनुभूति जीवन की ,
तुम्हारी ही नगरी में |

कहीं-कहीं पेड़ों की शाखाओं पर
रुई के फाहे सी उतरती बर्फ का साम्राज्य था,
ठिठुरती रात, गहराता सन्नाटा
अलग ही रूप दिखा रहा था,तुम्हारी सृष्टि का,
तुम्हारी ही नगरी में |

सभी रूपों में नगरी लग रही थी भली,
सहज शांत
कहीं प्रकाश अंधकार बना
तो कहीं अंधकार प्रकाश बनता दिखा
जब अस्त होकर सूरज उदय हुआ.
कहीं जीवन मृत्यु को समर्पित हुआ
तो कहीं मृत्यु से जीवन का प्रस्फुटन दिखा
जब धरती में पड़े बीज ने अंकुर को जन्म दिया |
उतार -चढ़ाव की कहानी कहती
जीवन -मृत्यु की कला सिखाती
तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर|

नदी-नाव ,झील-प्रपात ,
सागर-लहरें ,पर्वत-पक्षी,
सूरज-चाँद ,बादल-आवारा
कलि-फूल ,वन-प्रांतर सारे,
बने खिड़कियाँ तूम्हारे दर्शन के |
में खो गई नगरी की सुन्दरता में,
भूल गई मंजिल ,
खूबसूरत रास्तों में उलझ गई
छल लिया इन्होनें मुझे ,
बांध लिया अपने बाहुपाश में ,
अपने प्यार से अपनी कोमलता से |

तुम्हारी पवित्रता
तुम्हारी उच्चता
तुम्हारी अतुल्यता की, कहानी कहती, ये नगरी कितनी भव्य है ?
जब तुम स्वयं मिलोगे सृष्टा ,
क्या में आँखें चार कर पाउगी ?
तुम्हारी पवित्रता को छूने की पात्रता अर्जित कर पाऊँगी ?

मोहिनी चोरडिया