बुधवार, 28 दिसंबर 2011

नव वर्ष



प्रत्येक नये वर्ष के
आगमन पर हम
यही कहते हैं
नया वर्ष आया
नया सवेरा लाया ,लेकिन
हर बार ही
ऐसा क्यूँ होता है कि
जाग जाने के बावजूद भी
हमारी चेतना पुनः -पुनः
सो जाती है  ?
सतर्कता कहीं गुम हो जाती है
हमारे ही लोग हमें दगा दे जाते हैं
और हम देखते रह जाते हैं
तो जागो दोस्तों

नये वर्ष की दस्तक दरवाज़े पर
सुनाई दे रही है
नये वर्ष को नयी सोच दो
नये वर्ष को नयी बातें  दो

कहो .....अपने आप से ..

रिश्तों की हिफाज़त की
सम्बंन्धों को सरल रखने की
किसी के साथ छल न करने की
अधिकारों के पहले कर्तव्यों की |

कहो  देशवासियों से ....

गोदामों में अन्न न भरने की
विदेशी बैंकों में धन न भरने की
अवैध व्यापार कर दान न देने की
सीमा अवधि पार की दवाइयां न बेचने की |

कहो अपने बच्चों से ...

घोटाला करने वाले मिलते हैं
तो लाल बहादुर शास्त्री भी
यहीं, भारत में ही
पैदा होते हैं |

आतंकवादी पनपते हैं
तो प्रोफ़ेसर डा अब्दुल कलाम भी
इसी देश को
मिलते हैं |

जागरण की बेला है
पुरुषार्थ का समय
चरेवैति-चरेवैति का नाद हो
राष्ट्रहित की फ़रियाद हो ,नव वर्ष पर |

मोहिनी चोरड़िया





गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

नव वर्ष पर एक पाती

नया वर्ष सुसज्जित हो
शुभ विचारों से
उन्नत संस्कारों से
सामाजिक सरोकारों से

नव वर्ष में लिखें, नई बातें
सिर्फ पेपर पर ही नहीं
सिर्फ  फेस बुक, अभिव्यक्ति पर ही नहीं
लिखें अपने ह्रदयपटल पर

लिखें ही नहीं.....

शपथ लें
सिर्फ भ्रष्टाचार से लड़ने की ही नहीं
भ्रष्टाचार न करने
न फैलाने की ,

प्रतिज्ञा करें
आतंकवाद को रोकने की ,
और
आतंकवाद न फैलाने की

संकल्प दोहराएँ
चरित्रहीनता, से ऊपर उठने का
जाफर, जयचंदों से देश को बचाने का
और, स्वयं जयचंद न बनने का

भगतसिंह,खुदीराम ने
मादरे वतन की कसम खाई थी
हम उनकी शहादत की कसम खायें
हमारे देश को हमारा समझें
ऐसा मन बनायें

देश की तरक्की की आरज़ू जगायें ,
रामप्रसाद बिस्मिल की
" सरफरोशी की तमन्ना"
एक बार फिर से दोहरायें

जब तक जान न जुदा हो तन से
देश की धरती को
जन्नत बनाने के
ख्व्वाबों को हकीकत बनायें |

मोहिनी चोरड़िया






कितना अच्छा लगता है ?


कितना अच्छा लगता है ?

फूल का खिलना
बच्चे का हँसना
पक्षियों का चहचहाना
आम का बौराना,
कितना अच्छा लगता है ?

फूलों का रूखसार
गंधों का त्यौहार
भौरों का अभिसार
बचपन का वह प्यार ,
कितना अच्छा लगता है ?

लता का वृक्ष से लिपटना
अम्बर का धरती से गले मिलना
फूल का परागित होना
माँ का एक बच्चे को जन्म देना ,
कितना अच्छा लगता है ?

पवन का पगलाना
वृक्षों का इठलाना
बयार का बासंती होना
अमराइयों की जुल्फों में भौरों का खो जाना ,
कितना अच्छा लगता है ?

मदमाता मधुमास
फूलता पलाश
आँखों में उतरते इन्द्रधनुषी रंग
प्रियतम का संग ,
कितना अच्छा लगता है ?


मोहिनी चोरडिया |

रूप तुम्हारा

चम्पा जैसा रंग तुम्हारा
खिला -खिला सा 
सुबह की धूप सा
सुनहरी ,
गंध तुम्हारी जैसे 
गुलाब की कली ने खोल दी हों 
पंखुडियां ,
तुम्हारे सुकुमार चेहरे पर 
अभी -अभी धुले बालों से 
झर रही  पानी की बूंदें 
जैसे छिटकी ओस की बूँदें पत्तों पर 
लगती हैं प्यारी ,
तुम्हारा रूप पावस में नहाया सा ,
या  
खिला हो कमल जैसे ,
अदृश्य  पवन सी तुम 
बहती हो 
एहसास करातीं 
तुम्हारी उपस्तिथि का ,
मेरा मन तुम्हें 
अपना बना लेता है 
तुम्हें देखना चाहता है 
बिलकुल वैसा ही 
जैसा मैनें तुम्हें देखा था 
बरसों पहले 
जब तुम निकल रहीं थीं 
बाहर,  
कॉलेज की लाइब्रेरी से |

मोहिनी चोरडिया 

मेरा मन और मुस्कान


मेरे भीतर एक आकाश
कई सूर्य ,कई चन्द्र ,कई आकाशगंगाएं
तारों की झिलमिलाहट
उष्णता ,शीतलता ,धवलता कलुषता भी
संवेग ,आवेग, आवेश का फैलाव
तो
प्यार, प्रेम, सुखऔर
आनंद की लहर भी अंदर
इस आकाश से रूबरू होने की
कोशिश में लगी हूँ
बीत रहा है जीवन  दौड़ते भागते
और
जीवन की इस दौड़ में
धीरे-धीरे सब खुल रहे हैं
सामने आ रहे हैं
एक दुसरे पर
हावी भी हो रहे हैं
कौन जीतेगा ?
मैनें मन को कहा
धीरे से,
दुलार से ,
बस एक मुस्कान !
पिघल जायेंगें सब
शांत  हो जायेंगें
जीत जाएगा जीवन |

मोहिनी चोरडिया

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

बासंती बयार



हवा आई है मदमाती फागुनी रे
भरे जीवन में रंग ये नये
नेह देह गंध को बिखेरती रे
भरे जीवन में रंग ये नये ।

रतनारी अंखियों से पूछ आई है
रसवंती गालों को चूम आई है
भँवरों की गुनगुन भी साथ लाई है
भरे जीवन में रंग ये नये ।

कुंकुम अबीर को नभमंडल में बिखेरती
कोयल की कूक को अमराई में उकेरती
टेसू और पलाश के रंग साथ लाई है
भरे जीवन में रंग ये नये ।

कचनारी काया को नेनौं से बींधती
भादों की रातों को मन में उमेगती
परदेसी प्रियतम को साथ लाई है
भरे जीवन में रंग ये नये ।

मोहिनी चोरडिया 

ये फागुनी होली


पलाश के, टेसू के फूलों की होली
केसर, चन्दन के पीले रंगो की होली
उड़ते अबीर गुलाल की होली ,
रंगों के अम्बार की होली 
ढोल की थाप पर कोडे़ मारती औरतें, और
चहचहाते लोगों की होली  
ये फागुनी होली ।

ब्रज की बरसाने की होली
लाव व बठैन की होली
भंग की तरंग में डूबी राजस्थान की होली
चंग और ढोल की थाप पर मंजीरे बजाते,
फाग गाते, लोगों की होली,
ये फागुनी होली ।

आज बसंत बहार की होली
हँस रही अमराई की होली
फूली सरसों की क्यारी की होली
खेतों और खलिहानों की होली
मदमाते मधुमास की होली,
कली, और भौंरों के अभिसार की होली
ये फागुनी होली ।

राधा और गोपाल की होली
जोरी और बरजोरी की होली
गौरी और साजन की होली
बाहों की जंजीरों की होली
आज हसीन नज़ारों की होली
ये फागुनी होली ।

देवर और भाभी की होली
जीजा और साली की होली
सारंगी सांसों की होली
सतंरगी यौवन की होली
आज मेरे हमजोली की होली
ये फागुनी होली ।

गोष्ठियों, कविसम्मेलनों की होली
गीतों और गज़लों की होली
हास परिहास और व्यंग्य की होली
प्यार के रंग बिखेरती
ये हुड़दंगी होली
ये फागुनी होली |

मोहिनी चोरडिया 

मौसम का बारहमासा


जेठ की तपती दुपहरिया
निगल गई चिंताएं अतीत की
आलस में डूबा तन
सूना-सूना लगे मन
कपडे-लत्ते न सुहाएँ
सब मिल बतियाँ बनाएँ

और तभी ,

कुदरत की खुशबू लिए
बारिश का मौसम, आया
धरती को नया जन्म मिला
मिट्टी की सौंधी खुशबु से मन हिला
आई बरखा रानी
स्वप्न सुन्दरी बनकर |

दादुर,मोर,पपीहा
करें सब शोर
भीगी-भीगी हवाएं ,
नगमें सुनाएं
किसी की यादों का मौसम
दिल को धड्काए |

खिज़ाँ के मौसम ने दिखाई
पेड़ों की बेबसी
वसनरहित हो जाने की ,अपनों की जुदाई की
सिखा गया पतझड़ का मौसम 
सृजन के साथ विसर्जन है, दःख के साथ सुख है
जीवन मौसम है |

आगे बढ़ने पर ,
धूप और छाया की
ऑंख मिचौनी  मिली
सुनहरी धूप ने धरती की गोद भरी
बहारोँ ने आकर वसन पहनाकर, 
पेड़ों को नया रंग दिया
समझाया , मौसम कितना भी खराब हो
बहारें फिर से लौटती हैं|

ऋतुओं की रानी आई
दिल के दरवाजे पर
खुशियों के साथ-साथ
फूलों के गुलदस्ते लाई
ख़्वाबों  का , उमंगों का ,
मुस्कराने का मौसम लाई |

 दिल ने कहा 
मौसम बाहर कैसे भी हों
अंदर जब फेलती है हसींन यादें ,
तभी मन के
इन्द्रधनुष खिलते हैं
सतरंगी सपने अपने होते हैं

मोहिनी चोरडिया



मंगलवार, 29 नवंबर 2011

क्वार मैं


नव उत्सव 
हमारे आँगन आना | 

उमंगों के मेलों को 
चाहत के रेलों को
तुम साथ लाना |

खुशियों की गमक को 
चेहरे की चमक को 
विस्तार दे जाना |

अमावस की रात को 
दीयों की पांत को 
नव आलोक लाना |

पटाखों की लड़ियों को 
बच्चों की फुलझडियों को 
नव उल्लास दे जाना |

हल जोतते भोला को 
खड़ी फसलों को 
नयी मुस्कान दे जाना |

पडौस की बूढ़ी काकी की
अन्दर धंसी आँखों को 
बेटों की चाहत की 
एक झलक दे जाना  |

मोहिनी चोरडिया 
चेन्नई 

सर्जनहार ! तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर ?


आज
मुर्गे की बांग के साथ ही
प्रवेश किया मैंनें
तुम्हारी नगरी में |
रुपहरी भोर ,सुनहरी प्रभात से ,
गले लग रही थी
लताओं से बने तोरणद्वार को पारकर आगे बढ़ी,
कलियाँ चटक रही थीं,
फूलों का लिबास पहने,
रास्ते के दोनों और खड़े पेड़ों ने
अपनी टहनियां झुकाकर स्वागत किया मेरा
भीनी- भीनी
मनमोहक मादक खुशबू बिखेर,
आमंत्रित किया मुझे,
तुम्हारी नगरी में |

अदभूत नज़ारा था,
ठंडी-ठंडी पुरवाई,
फूलों पर मंडराते भ्रमर गुंजन करते,
सुंदर पंखों वाली तितलियाँ और
उनकी आकर्षक आकृतियाँ
मन को लुभाने लगीं ,
तुम्हारी नगरी में |

पक्षियों का संगान
लगा तुम्हारी सृष्टि का बखान
प्राची में उगते बाल सूर्य की लालिमा से
खूबसूरत बना क्षितिज,
पानी में उतरता उसका अक्स,
यौवन की और बढता वह,
तुम्हारी शक्ति,तुम्हारे बल की
कहानी कहता लगता,
आत्मबल का पर्याय बना ,
धरती को धन्य करता.

जंगल की डगर ...
फूलों से लदी डालियाँ
अंगड़ाई लेती वादियाँ
कुलांचें भरते वन्य जीव
कल -कल बहता पानी
झर-झर झरता झरना
तुम्हारी अजस्त्र ऊर्जा का बहाव,
तुम्हारा ये चमत्कार,
विश्व को तुम्हारा उपहार
तुम्हारी ही नगरी में |

नदी के किनारे खड़े
आकाश को छूते पेड़ों के झुंडों को देखकर लगा
जेसे दे रहे हों सलामी खड़े होकर
तुम्हारी अद्वितीय कारीगरी को
छू रहे थे आसमान,
धरती से जुड़े होने पर भी,
ऊँचाइयों को छूकर लग रहे थे खिले-खिले
तुम्हारी नगरी में |

आगे पर्वतों की चोटियाँ दिखीं
उत्तुंग शिखरों पर कहीं बर्फ की चादर बिछी थी ,
कहीं उतर रहे थे बादल,
अपनी गति .अपने विहार को विश्राम देते
अपनी शक्तियों को पुनः जगाने के लिए,
बूँद-बूँद बन सागर की और जाने के लिए,
ताकि कर सकें विलीन अपना अस्तित्व,
वामन से बन जाएँ विराट .
तुम्हारी ही नगरी में |

खेतों में उगी धान की बालियाँ
कोमल-कोमल ,कच्ची-कच्ची
हवा से हिलतीं
तुम्हारे मृदु स्पर्श को महसूस करतीं ,लजातीं सी
नव जीवन पातीं लग रही थी
तुम्हारी ही नगरी में |

शांत-प्रशांत झीलों में खिलते कमल,
उनमें विहार करते ,चुहुल बाजी करते ,
कभी इतराकर चलते
नहाकर पंख फडफडाते
थकान मिटाते पक्षी,
करा रहे थे सुखद अनुभूति जीवन की ,
तुम्हारी ही नगरी में |

कहीं-कहीं पेड़ों की शाखाओं पर
रुई के फाहे सी उतरती बर्फ का साम्राज्य था,
ठिठुरती रात, गहराता सन्नाटा
अलग ही रूप दिखा रहा था,तुम्हारी सृष्टि का,
तुम्हारी ही नगरी में |

सभी रूपों में नगरी लग रही थी भली,
सहज शांत
कहीं प्रकाश अंधकार बना
तो कहीं अंधकार प्रकाश बनता दिखा
जब अस्त होकर सूरज उदय हुआ.
कहीं जीवन मृत्यु को समर्पित हुआ
तो कहीं मृत्यु से जीवन का प्रस्फुटन दिखा
जब धरती में पड़े बीज ने अंकुर को जन्म दिया |

उतार -चढ़ाव की कहानी कहती
जीवन -मृत्यु की कला सिखाती
तुम्हारी नगरी कितनी सुंदर|

नदी-नाव ,झील-प्रपात ,
सागर-लहरें ,पर्वत-पक्षी,
सूरज-चाँद ,बादल-आवारा
कलि-फूल ,वन-प्रांतर सारे,
बने खिड़कियाँ तूम्हारे दर्शन के |
में खो गई नगरी की सुन्दरता में,
भूल गई मंजिल ,
खूबसूरत रास्तों में उलझ गई
छल लिया इन्होनें मुझे ,
बांध लिया अपने बाहुपाश में ,
अपने प्यार से अपनी कोमलता से |

तुम्हारी पवित्रता
तुम्हारी उच्चता
तुम्हारी अतुल्यता की 
कहानी कहती, 
ये नगरी कितनी भव्य है ?
जब तुम स्वयं मिलोगे सृष्टा ,
क्या में आँखें चार कर पाउगी ?
तुम्हारी पवित्रता को छूने की पात्रता
अर्जित कर पाऊँगी ?

  • मोहिनी चोरडिया

फिर प्रारम्भ होगा सृष्टि -चक्र


पुरुष !
विवाह रचाओगे ?
पति कहलाना चाहोगे?
पत्नी को प्रताड़ित करना छोड़ ,
अच्छे जीवन साथी बन पाओगे?

मेरी ममता तो जन्मों की भूखी है ,
बच्चों के लिए बिलखती है,
सृष्टि-चक्र, मेरे ही दम पर है ,यह कहते हो ,
फिर भी दुत्कारी जाती है ?

इतिहास के हर यक्ष-प्रश्न का जवाब
में देती आई हूँ
(यक्ष को भी जन्म मैनें ही दिया था )
लेकिन ,लेकिन इस बार प्रश्न मेरे होंगे |

पुरषों ,महापुरुषों को जन्म देने वाली औरत ,
अन्य पुरुषों से ही नहीं ,अपने ही पति से
बलात्कार और तन्हाइयों का शिकार
क्यों होती है ?

ये निर्माणीतान रुक जायेगी
विध्वंस का राग छिडेगा ,यदि
किसी मासूम का गला,
इस दुनियाँ में आने से पहले ही
घुट जाएगा ,या बिलखती मासूम बाहों का
सहारा छिन जाएगा |

मेरे विशेषण तो हर युग में बदले हैं ,
पुरुष के अहंकार ने कभी कुलटा तो कभी दुष्टा कहा,
मातृत्व सुख की चाह जगाकर ,
भीड़ में कहीं खो गया |

आज फिर तुमने ,उसी पुरानी ममता
और मातृत्व सुख का लालच देकर
मुझे रिझाना चाहा है ,लेकिन पुरुष !
मेरी जड़ता को ,मेरी ऋजुता को
अब मैनें पीछे की सीट पर बैठा दिया है, और
मैं जाग्रत होकर अपने जीवन की गाड़ी
स्वयं चलाने लगी हूँ |

हो सकता है मेरा ये बर्ताव ,तुम्हें
मेरी वक्रता लगे ,लेकिन पुरुष !
मेरा वादा रहेगा
जिस दिन तुम्हारा अहंकार पिघल जाए
मुझे याद करना
प्रथम पुरुष मनु और प्रथम स्त्री इडा की तरह
हम अच्छे साथी बनकर
नयी सृष्टि की शुरुआत करेंगे |

मोहिनी चोरडिया

रविवार, 27 नवंबर 2011

अनहद नाद

बस! तुम्हारी सांसों ने छुआ मुझे, और
मैं पिधलकर बहने लगी
जैसे सरिता बहती है,
मिलने को समन्दर से
मेरी देह, मेरा नेह,
सब हो गये आतुर
मिलने को किसी अपने से ।
तुम्हारे मन में उठा था ज्वार,
ठीक वैसे ही
जैसे पूनम के चन्दा को देख,
समन्दर के पानी में
और तुमने भर लिया था,
अंक में अपने मुझे,
जैसे रजनी के अंक में सिमटी,
प्रभात की लाली |
बजने लगा था नाद, अनहद
निःशब्द मौन रात्रि में,
सप्त स्वरों का हुआ गुंजन
लगा, मैं बन गई दुल्हन
एक आवाज़ सुनी मैनें
बहुत गहराई से आती .........
मैं माँ बनना चाहती हूँ
तुम्हारे ही जैसे किसी बच्चे को,
अपने अंक में भरना चाहती हूँ,
और मैं जाग गई
फिर सो न सकी, कितनी ही रातों तक
न ही पा सकी, वो स्पर्श फिर
क्या प्यार के दीवानों को
ऐसी ही तन्हाईयाँ झेलनी पड़ती हैं ?


मोहिनी चोरडिया

श्री रामचंद्र जी के अयोध्या लौटने पर उनके स्वागत में एक गीत


हेली मंगल गाओ आज ,
सहेली मंगल गाओ आज |

ढोल नगाड़ा नौपत बाजे
अयोध्या में आज
तोरण द्वार सजे सब आँगन
कौशल्या घर आज |

मोत्यां चौक पुरावो है सखी
झिलमिल आरती थाल
रामचंद्र जी लौटेंगे सखी
सीता लखन संग आज |

शुभ घड़ी आई भ्राता मिलाई
दशरथ के घर आज
भरत की तपस्या लायेगी
सखी ! खुशियों का अम्बार |

उर्मिला की होगी साधना
पूरी है सखी आज
कैकेयी ,सुमित्रा के मन पुलकित ,
पूरे हुए सब काज |

अमावस की रात सजेगी
अयोध्या नगरी आज
घी के दीपों की जगमग होगी
उत्सव मनेगा आज |

मोहिनी चोरडिया


वो प्यार भरे पल

वो पल सबसे अच्छे थे
जो गुज़रे थे तेरी बाहों में ।

खयालों में उन पलों को जी लेती हूँ
उन सांसों की सरगम से
मन को भिगो लेती हूँ
वो पल वापस नहीं लोटेंगे, मुझे पता है
उन स्मृतियों से आँखों को
नम कर लेती हूँ ।

उन पलों ने बुना था
ख्वाबों का सिलसिला
उन पलों ने बुना था
प्यार का फलसफा
उन पलों ने बुना था
गीत एक अनकहा
उन पलों ने दिया था
मीत एक मनचहा|

मृदंग बज उठे थे मन में
बदन में सिहरन, होंठों पे थिरकन
नयनों में प्यार की बदली
छलक उठी थी
उस पल में
तुमने लुटाया था
अपने प्यार का पराग
जिस पल में ।

मोहिनी चोरडिया

अनकही

एक दोपहर अलसायी सी
सब ओर सन्नाटा पसरा था
घर की बालकनी में खड़ी,
कुछ अनमनी सी मैं ।
सामने की दीवार पर बैठी,
गांव की एक अल्हड़ किशोरी
बाट जोहती सी,
एक किशोर मतवाला,
आकर लगा बतियाने
पकड़कर हाथ उसका
एक सिहरन दौड़ गई थी,
अन्दर मेरे
पहली बार महसूस किया था मैनें,
गहराई से,
तुम्हारे पास नहीं होने को,
और वह निगोड़ी चिरैया, उसने
एहसास कराया था मुझे,
तुम्हारे पास नहीं होने का, जब वो
चोंच लड़ा रही थी, अपने सखा से
फुदक-फुदक कर चँहक-चँहक कर,
लगा, कुछ रिस गया,
भीग गई थी मैं,
जब सामने के पेड़ की इक टहनी पर
दो फूल खिल रहे थे,
गले मिल रहे थे
दिल ने कहा था,
यही प्यार है शायद ...
आँखें भूल गई थीं सोना,
पलकें, बन्द होना,
कई रातें गवाह बनी थीं,
चाँद और चाँदनी की
आँख मिचौनी देखने की ।

मोहिनी चोरडिया