एक दोपहर अलसायी सी
सब ओर सन्नाटा पसरा था
घर की बालकनी में खड़ी,
कुछ अनमनी सी मैं ।
सामने की दीवार पर बैठी,
गांव की एक अल्हड़ किशोरी
बाट जोहती सी,
एक किशोर मतवाला,
आकर लगा बतियाने
पकड़कर हाथ उसका
एक सिहरन दौड़ गई थी,
अन्दर मेरे
पहली बार महसूस किया था मैनें,
गहराई से,
तुम्हारे पास नहीं होने को,
और वह निगोड़ी चिरैया, उसने
एहसास कराया था मुझे,
तुम्हारे पास नहीं होने का, जब वो
चोंच लड़ा रही थी, अपने सखा से
फुदक-फुदक कर चँहक-चँहक कर,
लगा, कुछ रिस गया,
भीग गई थी मैं,
जब सामने के पेड़ की इक टहनी पर
दो फूल खिल रहे थे,
गले मिल रहे थे
दिल ने कहा था,
यही प्यार है शायद ...
आँखें भूल गई थीं सोना,
पलकें, बन्द होना,
कई रातें गवाह बनी थीं,
चाँद और चाँदनी की
आँख मिचौनी देखने की ।
मोहिनी चोरडिया
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