रविवार, 27 नवंबर 2011

अनहद नाद

बस! तुम्हारी सांसों ने छुआ मुझे, और
मैं पिधलकर बहने लगी
जैसे सरिता बहती है,
मिलने को समन्दर से
मेरी देह, मेरा नेह,
सब हो गये आतुर
मिलने को किसी अपने से ।
तुम्हारे मन में उठा था ज्वार,
ठीक वैसे ही
जैसे पूनम के चन्दा को देख,
समन्दर के पानी में
और तुमने भर लिया था,
अंक में अपने मुझे,
जैसे रजनी के अंक में सिमटी,
प्रभात की लाली |
बजने लगा था नाद, अनहद
निःशब्द मौन रात्रि में,
सप्त स्वरों का हुआ गुंजन
लगा, मैं बन गई दुल्हन
एक आवाज़ सुनी मैनें
बहुत गहराई से आती .........
मैं माँ बनना चाहती हूँ
तुम्हारे ही जैसे किसी बच्चे को,
अपने अंक में भरना चाहती हूँ,
और मैं जाग गई
फिर सो न सकी, कितनी ही रातों तक
न ही पा सकी, वो स्पर्श फिर
क्या प्यार के दीवानों को
ऐसी ही तन्हाईयाँ झेलनी पड़ती हैं ?


मोहिनी चोरडिया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें