रविवार, 27 नवंबर 2011

स्त्री और प्रकृति

प्रकृति और स्त्री
स्त्री और प्रकृति
कितना साम्य ?
दोनों में ही जीवन का प्रस्फुटन
दोनों ही जननी
नैसर्गिक वात्सल्यता का स्पंदन,
अन्तःस्तल की गहराइयों तक,
दोनों को रखता एक धरातल पर
दोनों ही करूणा की प्रतिमूर्ति
बिरले ही समझ पाते जिस भाषा को
दोनों ही सहनशीलता की पराकाष्ठा दिखातीं
प्रेम लुटातीं उन पर भी,
जो दे जाते आँसू इन्हें,
आहत कर जाते,
छलनी बना देते इनके मन को,
कुचल जाते, रौंद जाते इनके तन बदन को,
दुनियाँ की स्वार्थलिप्सा का शिकार
बनतीं बार-बार
लेकिन माफ़ कर जातीं हर बार
गफ़लत में जी रही दुनियाँ,
ये नहीं समझ पा रही
जब जागेंगीं,
दोनों, जननी और जन्मभूमि,
स्त्री और प्रकृति
दिखा देंगीं अपना रूप,
महिषासुर मर्दिनी का
करेंगी संहार असुरता का, क्रूरता का
करा देंगी साक्षात्कार
पीड़ा के उस दंश का, जो
मिलता रहा आजीवन इन्हें
अपनों से ही ।
मोहिनी चोरडिया

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