रविवार, 11 सितंबर 2011

तुम कहाँ हो?

पता नहीं,
शायद यहीं कहीं ,
नहीं- नहीं ,
यहीं
आसपास ही कहीं ,
क्योंकि ,
तुम्हारी सुगंध ,तुम्हारी सुवास ,
कलियों में चटकती है ,
फूलों में बसती है ,
हवाओं के संग घूमती है |
तुम्हारा अक्स ,तुम्हारी आकृति
कभी बादलों में
कभी पानी में ,
खेतों में , खलिहानों में
या की मुंडेर पर बैठे पक्षी के डेनों में
हर कहीं उतरी दिखती है |

तुम्हारी उपस्थिति
भोर की नीरवता में
सांझ के सुकून में
रात की शीतलता में
विश्राम करती महसूस होती है |
तुम्हारी ऊर्जा
हवा की सरसराहट में ,
पेड़ों की डोलती फुनगियों में
समन्दर की लहरों में
प्रेमी के पैरों में
घुंघरू बाँध नाचती दिखती है |

तुम्हारे होने का प्रमाण
जनमते बालक के रोने में ,
अर्थी के कोने में
मिल ही जाता है |

आस- पास ही नहीं
हर कहीं
तुम हो, तुम ही तो हो |


.
मोहिनी चोरड़िया


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