रविवार, 11 सितंबर 2011

परमसत्ता


मौन निःशब्द रात्रि
चारों ओर सन्नाटा
नंगे पेड़ों पर गिरती बर्फ
रुई के फाहे सी
रात को और भी गंभीर बनाती
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
गरजते समुद्र की उफनती लहरें
प्रलय जैसा दृश्य दिखातीं
खौफनाक मंजर पैदा करतीं
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
गुलाबी भोर, स्याह रात्रि में विलीन होती
अपने अस्तित्व का विसर्जन करती दिखती
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
आज तक समझ नहीं पाया कोई,
तुम क्या करवाना चाहते हो किससे ?
दो लोगों के मिलने-बिछुड़ने
का रहस्य भी
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
अनजान लोगों को आपस में मिला देना
कब किसकी झोली भर देना,
कब किसी को खाली कर देना,
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
किसकी मदद से किसको क्या देना
गिरने पर नई दिशा बता देना
शायद तुम्हारे ही आदेश से |
प्राची में उगता सूर्य और उसकी
निराली छटा में उड़ते पक्षी
बिना किसी आवाज़ के,
ऋतुओं का बदलना
कली का फूल बनना
सृजन की सारी प्रक्रियाएँ
तुम्हारे अस्तित्व का प्रमाण देती हैं |
उच्चतम जीवन जीने की कला सिखातीं
तुम्हारी सारी कृतियाँ
कितनी पुरातन फिर भी कितनी नूतन,
तुमको, तुम्हारे संकेतों को
हम साधारण मनुष्य
पढ़ ही नहीं पाते
और कभी पढ़ना नहीं चाहते
अपने ही अहंकार को साथ लिए
आगे बढ़ते रहते हैं
कुछ हाथ न आने पर
तुम्हारी ही ओर झांकते हैं
परमसत्ता को स्वीकारते हैं
शायद तुम्हारे ही आदेश से |

मोहिनी चोरडिया

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